Thursday 23 April 2020

कोरोना का रायता और दर्द अपना-अपना-5


बस्तर की असल तस्वीर जमलो

जमलो मड़कम 
रायपुर   भारत अब डिजीटल इंडिया बन गया है। इस डिजीटल इंडिया में भूख-प्यास, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और बुनियादी सुविधाओं के अभाव में 12 साल की बालिका की मौत होना 21वीं सदी की बड़ी त्रासदी है। यह घटना विकास के नाम पर लोगों से छलावा का बड़ा उदाहरण है। यह घटना भारत माता के उन कथित देशभक्तों की आंखें खोलने के लिए भी काफी है, जो बात-बात पर अपनी राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। बस्तर की बेटी जमलो मड़काम ने भूख-प्यास और गरीबी के चलते दम तोड़ दिया। यह  बताता है कि  पिछले दो दशक में बस्तर की तस्वीर केवल सरकारी आंकड़ों में बदली है। असलियत कुछ और ही है। जमलो की मौत ने वह असलियत उजागर कर दी है। जिन परिस्थितियों ने जमलो को मौत दी है, वैसी परिस्थितियां बस्तर के अधिकांश हिस्सों में है। लेकिन इसमें बदलाव नहीं हो रहा है। इसके चलते नई पीढ़ी के जमलो को भी असमय मौत देखना पड़ा है।   इसका मतलब  साफ  है  कि बस्तर की दशा  आज भी  नहीं बदली है।  वहां जीना कठिन और मौत आसान है।  चाहे मौत माओवादियों  से  मिले   या  मौसमी  बीमारी  से   या  फिर गरीबी, भूखमरी  और बेरोजगारी   के  चलते  हो। 
बस्तर की असल तस्वीर जमलो
जमलो के पिता 
जमलो मड़काम की मौत ने बस्तर की असल तस्वीर पेश की है, जो पिछले कई सदियों से वैसी की वैसी है। उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। वही भूख-प्यास और गरीबी, अशिक्षा व बुनियादी सुविधाओं का अभाव। 21वीं सदी में भूख-प्यास, बेरोजगारी, गरीबी और सुविधाओं की भारी कमी से किसी की मौत हो जाना, नेताओं के विकास के   दावों की पोल खोलता है। बस्तर के ग्रामीण इलाकों में आज भी बेरोजगारी, शिक्षा की कमी और बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है। बच्चे, बूढ़े और महिलाएं इसकी भेंट चढ़ रहे हैं। सरकारों का  अंधापन इसे क्यों देख नहीं  पा रहा है या जानबूझकर  अनदेखा किया जा रहा है।    इन इलाकों  के  लिए  अलग अलग  प्राधिकरण बना कर  हर साल करोड़ों रूपए का बजट जारी  किया  जाता   है।   इस  राशि का शतप्रतिशत   उपयोग  अगर बस्तरवासियो  के  लिए होता   ,  तो  जमलो जैसीं   नई  पीढ़ी  को अपनी जान नहीं गवानी  पड़ती  । 
कौन है जमलो
बीजापुर के ग्राम आदेड़ निवासी 12 साल की जमलो मड़कम। गरीबी के चलते कच्ची उम्र में ही जमलो को काम करना पड़ता था। फरवरी में जमलो अपने रिश्तेदारों के साथ तेलांगना के पेरूर गांव में मिर्ची तोडऩे चली गई। उसे करीब 100 रुपए रोजी दिया जाता था। कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए लॉकडाउन की घोषणा हो गई। पेरूर में काम बंद हो गया। सभी मजदूरों के साथ जमलो भी वहीं रह गई। कुछ दिन तक तो खाने-पीने के लिए मिलता रहा। इसके बाद भूखों मरने की नौबत आ गई। सभी मजदूरों ने बीजापुर लौटने का निर्णय लिया। लेकिन लॉकडाउन के चलते ठेकेदार ने मजदूरों को गांव तक पहुंचाने से इनकार कर दिया। सभी पैदल ही गांव लौटने लगे। पेरूर से बीजापुर 200 किमी से अधिक दूर है। इतने दूर पैदल जाना बालिका जमलो के लिए संभव नहीं था, लेकिन मजबूरी में उसे भी आना पड़ा। सभी जंगल के रास्ते लौट रहे थे। लगातार तीन दिन तक पैदल चलने के बाद 20 अप्रैल को जमलो की तबीयत खराब हो गई। उसके शरीर में पानी की भारी कमी हो गई। खाना भी ढंग से नहीं मिला। इसके चलते अपने घर से महज 14 किमी की दूरी पर जमलो ने दम तोड़ दिया। बताया जाता है कि बच्ची की मौत पानी और भोजन की कमी के चलते हो गई। https://raipurkegothbaat.blogspot.com/2020/04/corona-covid-19.html
गरीबी की भेंट चढ़ा बचपन
जमलो के आने का इंतजार कर रहे पिता आंदोराम मड़कम और मां सुकमति को जैसे ही यह खबर मिली, उनका रो-रोकर बुराहाल था। उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। गरीबी के चलते ही जमलो को तेलांगना जाना पड़ा। जमलो का बचपन गरीबी की भेंट चढ़ चुका था। जमलो की तरह कई बच्चे कामधंधों में लगे हैं। दरअसल बीजापुर सहित आसपास के इलाकों में ठेकेदार सक्रिय रहते हैं। मजदूरों को अपने साथ तेलांगाना, आंध्रप्रदेश आदि स्थानों में काम कराने ले जाते हैं। और उन्हें वापस भी छोडऩे का इंतजाम करते हैं।
मनरेगा का लाभ नहीं
ग्रामीणों के मुताबिक बीजापुर सहित बस्तर के अधिकांश स्थानों पर मनरेगा के काम ठप पड़े हैं। कुछ स्थानों पर काम चलता भी है, तो मजदूरी समय पर नहीं मिलती। खेती-किसानी बहुत सीमित है। लिहाजा ग्रामीणों को तेलांगना, आंध्रप्रदेश जैसे दूसरे राज्यों में काम करने जाना पड़ता है। जिला प्रशासन भी मनरेगा के काम को लेकर गंभीर नहीं है। खेती-किसानी को प्रोत्साहन देने वाली योजनाएं भी दम तोड़ रही है। गरीबी और बेरोजगारी के चलते लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। यही वजह है कि जमलो जैसे कई बच्चों को रोजीरोटी के लिए कोसों दूर पैदल चलना पड़ रहा है। आखिर रोजीरोटी के लिए इतना लंबा सफर कब खत्म होगा? जंगल के कई हिस्सों में माओवादी सक्रिय हैं, जिससे वनोपज संग्रहण करना मुश्किल होता है। उन्नत खेती-किसानी केवल एक सपना है। जमलो जैसे कई बच्चों और उनके परिजनों का असली दर्द बेरोजगारी,  गरीबी  और   आभवग्रस्त  जिंदगी है। 

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